Mir Taqi Mir Shayri. मीर मुहम्मद तकी (फरवरी 1723 – 20 सितंबर 1810), जिन्हें मीर तकी मीर के नाम से जाना जाता है, 18 वीं शताब्दी के मुगल भारत के एक उर्दू कवि थे और उर्दू भाषा को आकार देने वाले अग्रदूतों में से एक थे।
उनके पिता का नाम मीर मुत्तकी था। उनके पिता की मृत्यु के बाद, उनके सौतेले भाइयों ने उनकी संपत्ति पर अधिकार कर लिया। उनके अनाथ होने के बाद उसके सौतेले चाचा ने उसकी देखभाल की और उसके सौतेले चाचा (पैतृक) की मृत्यु के बाद उनके मामा ने उसकी देखभाल की।
उनकी कविता का हिस्सा उनके द्वारा व्यक्त किया गया दुख है। उन्होंने अपने शहर दिल्ली की बदहाली पर काफी दुख जताया है। वह उर्दू ग़ज़ल के दिल्ली स्कूल के प्रमुख कवियों में से एक थे और उन्हें अक्सर उर्दू भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक के रूप में याद किया जाता है। उनका उपनाम (तखल्लुस) मीर था। उन्होंने अपने जीवन का उत्तरार्द्ध लखनऊ में आसफ-उद-दौला के दरबार में बिताया।
एक दिल को हज़ार दाग़ लगा- मीर तकी मीर शायरी
एक दिल को हज़ार दाग़ लगा
अन्दरूने में जैसे बाग़ लगा
उससे यूँ गुल ने रंग पकड़ा है
शमा से जैसे लें चिराग़ लगा
ख़ूबी यक पेचाँ बंद ख़ूबाँ की
ख़ूब बाँधूँगा गर दिमाग़ लगा
(ख़ूबी = हुस्न, योग्यता, प्रतिभा,गुण,), (पेचाँ = घुमावदार, पेचीला, लिपटा हुआ, उलझा हुआ), (बंद = फंदा, पाश, गाँठ ), (ख़ूबाँ = सुन्दर स्त्रियां, माशूक़ लोग, प्रियतमाएँ)
पाँव दामन में खेंच लेंगे हम
हाथ ग़र गोशा-ए-फ़राग़ लगा
(फ़राग़ = अवकाश, छुट्टी, निश्चिंतता, बेफ़िक्री, छुटकारा, मुक्ति, संतोष, चैन), (गोशा = कोना, एकान्त स्थान)
‘मीर’ उस बे-निशाँ को पाया जान
कुछ हमारा अगर सुराग़ लगा
(बे-निशाँ = गुमनाम, आस्तित्वहीन, जिसका कोई अता-पता न हो)
-मीर तक़ी मीर
सरसरी तुम जहान से गुज़रे
वरना हर जा, जहान-ए-दीगर था(सरसरी = बेपरवाह), (जहान = दुनिया), (जा = तरफ), (जहान-ए-दीगर = दूसरी दुनिया, अलग दुनिया)
-मीर तक़ी मीर
हम तौर-ए-इश्क़ से तो वाक़िफ़ नहीं हैं लेकिन
सीने में जैसे कोई, दिल को मला करे हैतौर-ए-इश्क़ = प्यार का तरीक़ा, प्रेम की रीत
-मीर तक़ी मीर
वाक़िफ़ = परिचित
मला = मसलना/ मालिश
जाए है जी निजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नुम में
-मीर तक़ी मीर(निजात = मोक्ष, मुक्ति)
याद उसकी इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’, बाज़ आ
– मीर तक़ी मीर
नादान ! फिर वो जी से भुलाया न जाएगा
कहते तो हो, यूँ कहते, यूँ कहते जो वो आता
-मीर तक़ी मीर
सब कहने की बातें हैं, कुछ भी न कहा जाता
किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिरया-नाक
मिश़गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया
-मीर तक़ी मीरनींदों = गहरी नींद
मीर तक़ी मीर
चश्म-ए-गिरया-नाक = रोने के बाद आँखों की सुंदरता
मिश़गाँ = आँखों की पलक
सब गए, दिल, दिमाग़, ताबो तवाँ
मैं रहा हूँ, सो क्या रहा हूँ मैं-मीर तक़ी मीर
चमन का नाम सुना था, वले न देखा हाय !
जहाँ में हमने, क़फ़स ही में ज़िंदगानी की
-मीरचमन = बगीचा, उद्द्यान
वले = मगर
क़फ़स = पिंजरा
Mir Taqi Mir Shayri
यूँ उठे आह इस गली से हम,
जैसे कोई जहाँ से उठता है ।
–मीर तक़ी मीर
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको,
वगर्ना हम ख़ुदा थे, गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते।
-मीरसरापा = सर से पाँव तक, आदि से अंत तक
आरज़ू = आकांक्षा, इच्छा, अभिलाषा
बंदा = इंसान, सेवक
दिल-ए-बेमुद्दआ = वासना रहित हृदय
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दिखाई दिए यूं कि बेख़ुद किया, हमें आप से भी जुदा कर चले- मीर तक़ी मीर
फ़कीराना आए सदा कर चले,
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले।
(सदा = आवाज़)
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम,
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले।
(अहद = प्रतिज्ञा, वचन)
कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह,
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले।
बहुत आरज़ू थी गली की तेरी,
सो याँ से लहू में नहा कर चले ।
दिखाई दिए यूं कि बेख़ुद किया,
हमें आप से भी जुदा कर चले ।
ज़बीं सजदा करते ही करते गई,
हक़-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले ।
[(ज़बीं = माथा, मस्तक), (सजदा = माथा टेकना, सर झुकाना)]
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे,
नज़र में सभू की ख़ुदा कर चले ।
[(परस्तिश = पूजा, आराधना), (सभू = सभी)]
गई उम्र दर बंदऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल,
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले ।
कहें क्या जो पूछे कोई हम से ‘मीर’,
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले।
-मीर तक़ी मीर